भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक मौत के बाद / टोमास ट्रान्सटोमर
Kavita Kosh से
पहले वहाँ एक सदमा था
जिसने पीछे छोड़ दी थी एक लंबी, झिलमिलाती पूँछ पुच्छलतारे की
यह हमें रखती है अंतर्मुखी, बना देती है टीवी की तस्वीरों को बर्फ की तरह सर्द
यह जम जाती है टेलीफोन के तारों की ठंडी बूँदों में
शीत के धूप में अब भी की जा सकती है स्की धीरे-धीरे
ब्रश के माध्यम से जहाँ कुछ पत्तियाँ लटकी हैं
वे लगती हैं जैसे पुरानी टेलीफोन निर्देशिकाओं के फटे पन्ने
नाम जिन्हें ठंड ने निगल लिया है
दिल की धड़कन सुनना अब भी कितना सुंदर है
पर अकसर परछाईं शरीर की तुलना में अधिक सच लगती है
समुराई पिद्दी-सा लग रहा है
काले अजगर जैसे शल्कवाले अपने कवच के बगल में ।
(अनुवाद : प्रियंकर पालीवाल)