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एक मौहूम-से मंज़र की तरह लगता है / मंजूर हाशमी
Kavita Kosh से
एक मौहूम-से<ref>भ्रमात्मक-से</ref> मंज़र की तरह लगता है
दश्त<ref>जंगल</ref>, अब बिछड़े हुए घर की तरह लगता है
मेरे हाथों की लकीरों में नहीं लिक्खा था
अब जो अहवाल<ref>हाल</ref>, मुकद्दर की तरह लगता है
कुछ इस अन्दाज़ से होती है नवाज़िश भी कभी
फूल भी आये, तो पत्थर की तरह लगता है
जब हवाओं में, कोई जलता दिया देखता हूँ
वो मिरे उठे हुए सर की तरह लगता है
शिद्दत-ए-तश्नालबी<ref>तीव्र प्यास का कष्ट</ref>, ज़र्फ़-ए-तलब<ref>याचना का पात्र</ref> ले डूबी
अब तो क़तरा भी समन्दर की तरह लगता है
तेज़ होता है, तो सीने में उतर जाता है
लफ्ज़ का वार भी, ख़ंज़र की तरह लगता है
शब्दार्थ
<references/>