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एक यह भी दुख / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
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मेरे नाम को
दिन-रात चौबीसांे घंटा
आठो पहर
रटने वाले ओ मेरे मीत !
इस मध्य रात्रि में
वह कौन अनचिन्हा सा दर्द है
जिसके सताये तुम
मेरे नाम का
लगातार जाप कर रहे हो
ओ प्रीत मेरे
बोलो ऐसा क्यों होता है
कि इसी तरह बहुत बार
जाग पड़ती हूँ मैं
मेरी नींद बार-बार
क्यों टूट जाती है
आधी-आधी रात में ?
कहीं यह सच तो नहीं
कि उस समय तुम
मुझे पुकारते रहते हो।
जरूर ही
मेरी याद में तुम्हारा हृदय
तड़प कर
हाहाकार कर उठता होगा
कि मुझसे बिछुड़ने के दुख से
व्याकुल होकर
तुम्हारे अनियंत्रित मन का कोना-कोना
भींग गया होगा
मुझ बाबली को
पूर्ण रूप से पाने के लिए
तुम्हारा अंग-अंग दुखने लगा होगा
और फिर तुम
जाग कर बैठ गये होगे
मुझे अपने समीप नहीं पाकर
तुम मुझे पुकारते ।