एक युग को डूबते देखा / दिनेश कुमार शुक्ल
चन्द्रमा है...
और भी इक चन्द्रमा है
तुम्हारे मन में डूबा हुआ हमने चन्द्रमा देखा
चट्टान-सी ये रात
इस चट्टान के भीतर
जग रही सोये हुए जीवाश्म की धड़कन,
चन्द्रमा का रस अभी सैलाब बनकर
रात की चट्टान को भी पीस डालेगा
और चट्टानों के भीतर से निकलकर
गोलबन्द
पक्षियों के झुंड उड़ते आएँगे
उनके डैनों से छिटक कर गगन के तारे
तुम्हारी दीप्ति में खो जाएँगे
तुम जागती रहना
सृष्टि की लय
अभी त्रिवली में तुम्हारी समाएगी
उसे सहना
जागती रहना
किसी का मन
तड़पकर अभी फिर कौंधा
दिख गया खोया अमोलक रतन-धन संसार का,
सरसराती उठी
माटी चढ़ी ऊपर
छिटकती शाखा-प्रशाखा वृक्ष में अभिव्यक्त-
सारी रिक्ति को भरती हुई
उधर लम्बी हो रही है - आ रही छाया
पौंड्रवर्धन से, विशाला से, फतेहपुर सीकरी से
आ रही है विजेता की हवस की छाया
दिक्-काल में कुछ खोजती-सी भटकती
घर-गॉंव-पुर-पत्तन
इधर भागा आ रहा है
चीख़ता जलता घना जंगल
कूदता अस्तित्व की गहरी नदी में,
जा रही बहती
चिता की अधजली लकड़ी
उस नदी में
वहीं हमने
एक युग को डूबते देखा।