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एक योगी हो गया हूँ / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'

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मैं तुम्हारी साधना में, एक योगी हो गया हूँ।
पीर अब होती नहीं है, स्वप्न प्रेमिल टूटने पर।
अब कहाँ उत्सव हृदय में, धार नेहिल फूटने पर।
यंत्रणा में जाग-सोकर,
नेह में अनुराग खोकर,
चिर-विरागी राग होकर
भुक्त-भोगी हो गया हूँ।
मैं तुम्हारी साधना में, एक योगी हो गया हूँ।

अब नदी से मैं बिछड़ती, धार के पर्याय-सा हूँ।
नेह के सन्दर्भ में मैं, चिर-व्यथित अध्याय-सा हूँ।
हूँ पथिक, पतझार का मैं,
पीर हूँ शृंगार का मैं,
इस नए संसार का मैं
एक रोगी हो गया हूँ।
मैं तुम्हारी साधना में, एक योगी हो गया हूँ।

खो गए जाने कहाँ तुम, तूलिका को गीत देकर।
शब्द परिमल दे अधर को, कंठ को संगीत देकर।
नेह मेरा चिर हरित व्रण,
सद्य मैंने कर लिया प्रण,
कर स्वतः संन्यास धारण
मैं प्रयोगी हो गया हूँ।
मैं तुम्हारी साधना में, एक योगी हो गया हूँ।