इस विविधरंगी दुनिया में
एक रंग जो सरकता जा रहा है हमारे जीवन से
उसे बचा लेने की करबद्ध अपील करता हूँ आपसे।
दहकता हुआ एक रंग जो हिस्सा था हमारी स्मृति का
देखा था पहले-पहल
दादी माँ के पुरातत्वीय बक्स में
जहां जरी की साडि़यों ज़र्द पड़ गये फोटो और
यादगार चिट्ठियों के वज़न से दबी पुड़िया के भीतर
फूट पड़ती थी जिससे सूर्योदय की पहली किरण
दरअसल ‘पौ फटना’शब्द के आविष्कार के मूल में
वह बक्स ही था जिसके यदा-कदा खुलते ही
रक्तिम उजास से भर जाता था घर।
‘केसर है यह असली’की गर्वोक्ति के साथ
देती थी दादी कभी-कभार उत्सव-त्योहार पर माँ को
बन रही खीर या बरफी के लिये
वे दहकते हुए अंगारों का रंग लिये तंतु नहीं सिर्फ
एक याद थी जिसे लाए थे दादाजी शांत और सुकून भरे कश्मीर से
अपने बजट का अतिक्रमण कर
दूसरी बार पढ़ा था पाठ्य पुस्तक में
किसी रीतिकालीन कवि के बसंत-गीत में
कि किस तरह नहा जाती है धरती
एक खास रंग से इस ऋतु में
फिर हुआ सामना उससे फाग में
जब टेसू के फूलों से पत्थर पर घिस कर
बनाया गया था एक गाढ़ा-खुशबूदार रंग
जो भिगो देता था प्रेम में सिर से पाँव तक।
तब देखा था उस रंग को झंडे में देश के
लहराते शीर्ष पर
लेकिन उससे भी पहले देश पर मर-मिटे किसी शहीद के चोले में।
इन्द्रधनुष के सात रंगों में से एक
चित्रकला की कक्षा में वह था प्रतीक
प्रेम, शांति और सौहार्द का।
मित्रो! यह सब उस रंग के बारे में है
जिसका उद्भव दादी माँ के पुरातत्वीय बक्से में
परम्परा और विश्वास के वज़न से दबी
एक पुड़िया से हुआ था।
ये क्या हुआ अचानक
कि फिसलने लगा है वह जीवन-रंग
हमारी हथेलियों की पकड़ से
कि जितनी भी कमीजें हैं मनपसंद उस रंग की
पहनने को हिचकता है शरीर
कि तूलिकाएँ ठिठक जाती हैं सूर्योदय के लैण्डस्केप में
वह दहकता रंग भरते समय
कि उस रंग का नाम लेना
भर देता है दहशत से बाकायदा
कि आपने भी किया होगा महसूस
उस रंग के बारे में लिखी इस कविता में
प्रत्यक्ष जि़क्र नहीं है उस रंग के नाम का।
इस पृथ्वी पर विलुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण की तर्ज पर
मैं
एक मनुष्य की हैसियत से
याचना करता हूँ उनसे करबद्ध
जिन्होंने हथियाया यह रंग बेशकीमती
कि बेशक न छोड़ें आप अपने और हथियार
क्योंकि आप छोड़ नहीं सकते
लेकिन बख़्श दें कृपया
इस अपहृत रंग को
उस दृष्टि की खातिर
जो अभ्यस्त हो चुकी है
इस दहकते हुए अनिवार्य रंग की
कई दिनों से सूरज कैद है
दादी माँ के बक्से में।