भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक रचना प्रक्रिया / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तोते के काँपते बारिशी पंखों सी ठिठुर रही है हरी कच्च हवाएँ
रेत पर कछुओं की पीठ-सी दुबकी हैं बाट जोहती चुप सड़कें
झूमते हैं झील को घेर-घार अलमस्त दूधिया झरते पहाड़
और रूका है बिज्जू सा कुतरता राग में डूबी मेरी दुनिया को वह

चाहूँ तो झटक दूँ न केवल कविता बल्कि इस जीवन से
कितनी सूनी होगी तब यह पृथ्वी बगैर उसके
बावजूद इसके कि निगल लेना चाहता है
कोई यह मेरी हँसती-चहचहाती खुशी
मुझे उम्मीद है बहुत बदल सकता है शैतान का मन

बगैर शैतान के न यह दुनिया है इस तरह
न ही उसके बगैर कोई कविता मुकम्मल
मैं कभी भी निकाला जा सकता हूँ दुनिया से बाहर
वह कभी भी धमक सकता है कविता के अंदर

यह भी एक रचना प्रक्रिया है इतिहास में दाखिल होने की