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एक लंबी देह वाला दिन / तारादत्त निर्विरोध
Kavita Kosh से
थक गया हर शब्द
अपनी यात्रा में,
आंकड़ों को जोड़ता दिन
दफ्तरों तक रह गया।
मन किसी अंधे कुएं में
खोजने को जल
कागज़ों में फिर गया दब,
कलम का सूरज
जला दिन भर
मगर है डूबने को अब।
एक क्षण कोई
प्रबोली सांझ के
कान में यह बात आकर
कह गया,
एक पूरा दिन,
दफ्तरों तक रह गया।
सुख नहीं लौटा
अभी तक काम से,
त्रासदी की देख गतिविधियां
बहुत चिढ़ है आदमी को
आदमी के नाम से।
एक उजली आस्था का भ्रम
फिर किसी दीवार जैसा ढह गया,
एक लंबी देह वाला दिन
दफ्तरों तक रह गया।