एक लग्जिश में दर-ए-पीर-ए-मुँगा तक पहुँचे / 'रविश' सिद्दीक़ी
एक लग्जिश में दर-ए-पीर-ए-मुँगा तक पहुँचे
हम भटकते थे कहाँ और कहाँ तक पहुँचे
लुत्फ़ तो जब है कि महरम-ए-हुस्न-ए-गुफ़्तार
हो कोई बात मगर हुस्न-ए-बुताँ तक पहुँचे
ये भी कुछ कम नहीं ऐ रह-रव-ए-इक़लीम-ए-यकीं
हम ख़राबात-नशीं हुस्न-ए-गुमाँ तक पहुँचे
तय हुई मंज़िल-ए-ख़ारा-शिकनी दो दिन में
लोग सदियों में दिल-ए-शीशा-गराँ तक पहुँचे
ज़ौक़-ए-शीरीनी-ए-गुफ़्तार फ़ुजूँ और हुआ
ज़हर जितने थे वो सब अहल-ए-ज़बाँ तक पहुँचे
वो कहाँ दर्द जो दिल में तिरे महदूद रहा
दर्द वो है जो दिल-ए-कौन-ओ-मकाँ तक पहुँचे
आग भड़की है तो अब कौन ये कह सकता है
शोला-ए-दामन-ए-तहज़ीब कहाँ तक पहुँचे
मावरा लफ़्ज़ ओ बयाँ से है वो हुस्न-ए-अज़ली
कम-नजर मरहला-ए-लफ़्ज़-ओ-बयाँ तक पहुँचे
फ़ैज-ए-मेहराब-ए-ग़ज़ल है कि ‘रविश’ अहल-ए-नजर
हुस्न-ओ-रानाई-ए-अंदाज़-ए-बयाँ तक पहुँचे