एक लड़की, नाम जिसका दवे पारुल है / विजय बहादुर सिंह
एक लड़की नाम जिसका दवे पारुल है
गेहुँआ गहरा सलोना रंग गुमसुम किन्तु बेहद
शब्द पर जिसकी निगाहें टिकी रहती हैं
मुस्कुराती कभी लगभग हँसी आने तक
चाँदनी की कलाएँ सब उभर आती हैं
कभी अक्सर खिड़कियों के पार जाकर दूर
ख़यालों के बगी़चों में मौन बहती है
या किसी अनजान टहनी-सी
छिपाए गंध अपनी
पार्कों की झाड़ियों की गूँज सहती है
उंगलियाँ कुछ व्यस्त
उलझन भरी बातें होंठ पर रक्खी सवालों-सी
और छायाएँ कपोलों पर गए दिन की
डायरी की-सी नितान्त गोपन
आत्मगाथा लिए कुछ कहती न सुनती है
वही जिसको मिली है कविता
मिली है कल्पना की शक्ति
अनुभव जानती है
किन्तु इतने उतरते-चढ़ते दिनों में
कुन्तला-सी
फुनगियों फूलों टहनियों और शाखों तक
अमावस से ज्योत्स्ना के धुले पाखों तक
अकेली ही अकेली ही अकेली है
वही लड़की नाम जिसका दवे पारुल है।
कल अचानक मेरे पास आ गई थी
बिन बताए चली आती पास जैसे घटा
या कि वह प्रतिबिम्ब जो है पूर्णिमा का
उतर कर टिक जाए जैसे किसी पोखर में
वह टिकी कुछ देर
जैसे दोस्ती टिकती हवा की और पानी की
या कि कोई याद टिकती हो कहानी की
और फिर उठकर गई तो गई
जैसे गंध उठकर चली जाती है
बहुत-कुछ छोड़कर
वही लड़की नाम जिसका दवे पारुल है।
शिष्टता की मूर्ति
प्रतिमा उदासी की
शील जिसका महकता है
गुज़र उसके पास से यदि जाय कोई
किन्तु इतनी ही नहीं है
छिपाए ख़ुद को ख़ुदी में रह रही है
वही लड़की नाम जिसका दवे पारुल है।
यातना के लोक में सुख की तरह
पलक मूँदे साधनारत तपोवन-कन्या
जब कभी खुलती बहुत पर बन्द रहती है
उमगती तो नहीं अक्सर मन्द रहती है
वही लड़की नाम जिसका दवे पारुल है।
मैं उसी की उदासी में खो गया हूँ
एक अरसे बाद जैसे आप अपना हो गया हूँ
क्या कभी वह बन्द कमरे-सी खुलेगी
दूध-मिश्री की तरह मुझमें घुलेगी
या कि सपने की तरह खो जाएगी
वही लड़की नाम जिसक दवे पारुल है।