भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक लम्हा आज सारी जिंदगी को खा गया / ऋषिपाल धीमान ऋषि
Kavita Kosh से
एक लम्हा आज सारी जिंदगी को खा गया
रौशनी के चेहरे पर अंधियार को थोपा गया।
उम्र भर मुझको बिठाया जिसने पलकों पर सदा
उफ़! उसी की आंख से मैं आज क्यों गिर-सा गया।
किस्स-ए-ग़म आज इक इंसान से ऐसा खुला
यों लगा जैसे हमारी दास्तां दुहरा गया।
मौत भी मरने पे उसके दोस्तों, रोने लगी
शख्स वो जो मौत में भी ज़िन्दगी भरता गया।
हश्र क्या होगा खिज़ां में उस गुलिस्तां का 'ऋषि'
मौसमे-गुल भी गुलों को जिसके यों झुलसा गया।