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एक लोकगीत सुनकर / मंगलेश डबराल

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वह बहुत मीठी धुन थी
दूर से एक स्त्री का स्वर गूँजता हुआ आता था
सुरीला सुखद और मार्मिक
ज़रूर वह लम्बे समय तक सँगीत सीखती रही होगी
मर्म पर छपते उन स्वरों के शब्द
आर्तनाद से भरे हुए थे
हे दीनानाथ मेरा यह अर्घ्य स्वीकार करो
हे पाँच नामों वाले देवता इस बस्ती के नारायण
स्वीकार करो मेरे ख़ाली हाथों का यह नैवेद्य
मैं सुनती रहती हूँ सास-ससुर घर के लोगों के कुबोल
पता नहीं कहाँ से पुरखे चले आते हैं
और ताने देकर चले जाते हैं
पता नहीं किस गुनाह की सज़ा मुझे मिलती है

दूर से आ रही थी वह ध्वनि
नज़र नहीं आती थी उसकी गायक
लगता था सभी स्त्रियाँ उसे गा रहीं हैं
बिना चहरे की नामहीन
बहुत मीठी थी वह धुन
लेकिन उन शब्दों में भरी थी एक स्त्री की दासता
एक कातरता एक अभागेपन की ख़बर
वह गायन एक साथ मुग्ध करता और डराता था

स्त्रियाँ मीठे स्वरों में बाँचती हैं अपनी व्यथा
अपने अभागेपन की कथा
उसके भयानक शब्दों को सजाती-सँवारती हैं
उनमें आरोह-अवरोह-अलँकार के बेल-बूटे काढ़ती हैं
ताकि वे सुनने में अच्छे लगें
पूछती हैं दीनानाथों से
बताओ कौन से हैं मेरे गुनाह
जिनके लिए दी जा रही है मुझे सज़ा
दीनानाथ कोई जवाब नहीं देते
उनका यह अभागापन अलग से है ।