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एक शापित छाप / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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फिर वही है घना अंधापन

खून से सींची-हुई सड़कें
और बेबस पाँव
राख की पगडंडियों पर
जली-झुलसी छाँव

बज रहा है फिर पिशाची वन

द्वार पर सबके लगी है
एक शापित छाप
दूर तक सुनसान
उसको दिन रहा है नाप

हैं डरे दीवार-घर-आँगन

बंद है अलमारियों में
एक बूढ़ी साँस
हाँफती है धूप पकड़े
टिकटियों के बाँस

क्या करें - है बढ़ रही उलझन