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एक संक्षिप्त प्रेम पत्र / निज़ार क़ब्बानी / श्रीविलास सिंह

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मेरे प्रिय, मुझे कहना है बहुत कुछ
मेरे अनमोल, मैं कहाँ से करूँ आरम्भ
जो कुछ भी है तुम में, है वैभवशाली
तुम मेरे शब्दों के अर्थ से रचते हो जो
रेशम के कोष
वे हैं मेरे गीत और वही मैं हूँ
इस छोटी-सी किताब में हैं हम
कल जब मैं वापस पलटूँगा इसके पृष्ठ
एक दीपक करेगा विलाप
एक शैय्या गाएगी
इसकी लालसा के अक्षर हो जाएँगे हरे
इसके विराम-चिह्न होंगे उड़ने की कगार पर
कहो मत : क्यों यह यौवन
कहता है मुझसे हवादार सड़कों और धाराओं के बारे में
बादाम के वृक्ष और ट्यूलिप के बारे में
इसलिए कि यह संसार चलता है मेरे साथ-साथ जहाँ जाता हूँ मैं ?
क्यों गाता था वह ये सारे गीत ?
नहीं है अब कहीं कोई सितारा
जो न हो सुगन्धित मेरी महक से
कल को लोग मुझे देखेंगे उसकी कविता की पँक्तियों में
होंठ जिनमें है मदिरा का स्वाद, काले घने केश
भूल जाओ कि कहेंगे क्या लोग
तुम होगे महान केवल मेरे महान प्रेम से ही
क्या रही होती दुनिया यदि होते न हम
यदि होती न तुम्हारी ये आँखें, क्या रहा होता यह संसार ?