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एक संग रेंगव / नूतन प्रसाद शर्मा

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अलग - अलग मुंह करके बइठो झन मोर गांव सहर।
एक - दूसर ला अपन समझहू तभे भगाही भेद पहर।

              सहर के हा सहराती होथे, गांव के हा देहाती,
              तेल अलग हे दीया अलग हे, अलग - अलग बाती।
              सुन्‍ता दीया हा कइसे बरही, दगदग ले संगवारी,
              उल्‍टा रेंगे मं पा जाही - गांव सहर दुख भारी।

झगरा मं पिरीत के घर हा टुटही चरर चरर।
अलग - अलग मुंह करके बइठो झन मोर गांव सहर।

              सहर हा होथय बड़का भाई, गांव नान्‍हें भाई,
              आपुस मं ममता ला करही, होही तभे भलाई ।
              एक के बूता हा अटके तब, ओला दुसर सम्‍हाले,
              सुख मं सुख मानें दूनों झन, दुख ला दूसर टारे।

दूनों एक संग मिल रेंगे, कोड़े झन कुछ जर।
अलग - अलग मुंह करके बइठो झन मोर गांव सहर।

              अगर गांव हा अन्‍न धान ला, रखही खुद के थाथी,
              अगर सहर कल कपड़ा दवाई, नइ दे ही कोई ला।
              अपन जिद्द में दूनों अड़े तब, बिगड़ के रहहीं दूनों,
              बिगड़े के पांछू पंछताही, बढ़ही इरखा दोसी।

मन मुटाव ला छोड़ छूड़ी के, होवत गदर - मसर
अलग - अलग मुंह करके बइठो झन मोर गांव सहर।