एक संवाद सूरज से / राजीव रंजन प्रसाद
कई भोर बीते, सुबह न आई
तो सूरज से पूछा
हुआ क्या है भाई?
पिघलती हुई एक गज़ल बन गये हो
ये पीली उदासी है या चाँदनी है
वो अहसास गुम क्यों
वो गर्मी कहाँ है?
अगर रोशनी है,कहाँ है छुपाई?
कई भोर बीते, सुबह न आई..
तो सूरज ने मुझको
हिकारत से देखा
आँखें दबा कर
शरारत से देखा
कहा अपने जाले से
निकला है कोई
तुम्हारे ही भीतर
तुम्हारी है दुनिया
तुम्हीं पलकें मूंदे अंधेरा किये हो
तुम्हें देती किसकी हैं बातें सुनाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..
तुमसे है रोशन
अगर सारी दुनिया
तो मेरी ही दुनिया में
कैसा अंधेरा?
ये कैसा बहाना
कि इलजाम मुझपर
ये कैसी कहानी
कि बेनाम हो कर
मुझे ही मेरा दोष
बतला रहे हो?
मुझे दो उजाला तुम्हे है दुहाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..
ये उजले सवरे उन्हें ही मिलेंगे
जो आंखों को मन की खोला करेंगे
यादों की पट्टी पलक से हटाओ
कसक के सभी द्वार खोलो
खुली स्वास लो तुम
अपने ही में गुम
न रह कर उठो तुम
तो देखो हरएक फूल में
वो है तुमनें
पलक मूंद कर जिसको
मोती बनाया
नई मंज़िलों को तलाशो तो भाई
कई भोर बीते, सुबह न आई..