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एक सच यह भी / कुमार विक्रम
Kavita Kosh से
बस अभी-अभी मैंने विषपान किया
यह विष अब मेरी धमनियों में उतर
मेरे खून का हिस्सा होकर
सारे शरीर में गिलहरियों की तरह
दौड़ेगा, कूदेगा, बैठेगा, सोएगा
लेकिन मेरे चेहरे की कांति
उस पर बिखरी-फैली आभा पर
कोई असर नहीं दिखेगा
क्योंकि अधपढ़ शहरी की भांति
सबके बीचों-बीच
रेलवे प्लेटफॉर्म पर बैठ
अपना थैला खोल
सबके सामने मैं पानी की बोतल
नहीं निकालता हूँ
मेरे गंदे शर्ट, मेरी पीली पैंट
मेरा पुराना लाल तौलिया
मटमैली चप्पल
यह सब मैं दिखने नहीं देता हूँ
क्योंकि मेरे पास है क्रेडिट कार्ड
और मैं करता हूँ सफर
बड़े हल्के होकर...
मेरे धमनियों का विष ही है काफी
मेरे सफर की ज़रूरतों के लिए
सफ़र के बोझ के लिए
चेहरे की कांति बनाए रखने के लिए
'साक्षी भारत', २००६