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एक सफ़र ऐसा भी / लिली मित्रा
Kavita Kosh से
चुपचाप सुनते जाना
एकमात्र उपाय था जब
सुना गया
एक बहुत लम्बे समय तक
शायद तब भीतर का सब कुछ
शिष्ट था, संस्कारी था
सह पाना आसान नहीं था,
पर आसान बनाया गया
खूब ठोक पीटकर
आँखों को फैलाकर
अश़्कों को भीतर ही सोख लिया
जैसे तपती ज़मीन पर गिरी
पानी की बूँद को फैला,
भाप बना दिया जाए
एक लम्बे स्वदमन के दौर के बाद
भीतर का सब कुछ आदिम हो चलता है
अब वह अमूमन 'सुनकर' चुप नहीं रहता
'चुभोता है' शूल
एक दफ़ा नहीं, कई दफ़ा
ना खुश है ,न तुष्ट है
पर हाँ
भीतर की शिष्टता से उन्मुक्त है।
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