एक सिक्का था / निवेदिता चक्रवर्ती
एक सिक्का था, हाथों में उछलता रहा
एक घुँघरू था, जो पैरों में बजता रहा
घुटनों में सिर ढाँक कर पड़ा रहा वजूद
ख़ुद को औरों की रोशनी में ढूँढता रहा
कुछ तो था जो साँस लेने को काफ़ी था
पलकों पे ज़िद्दी ख़्वाब जो बैठे थे
हौसले, जो अब तक न छूटे थे
मुस्कान, जो कोई छीन ही न सका
आँधियों से टकरा कर भी न रुका
कुछ तो था जो साँस लेने को काफ़ी था
एक तिश्नगी थी, जो पल रही थी
कोख में कोई आग जल रही थी
मंज़ूर नहीं था ख़ैरात का तालाब
नदी अपनी रवानी में उछल रही थी
कुछ तो था जो साँस लेने को काफ़ी था
न चेहरे पे शिकन है, न दिल में डर है
मुट्ठी में सबका अपना-अपना मुक़द्दर है
दिल धड़कता है जब तक, हम भी धड़केंगे
हथेली में भले ही रोशनी जुगनू भर है
कुछ तो है जो साँस लेने को काफ़ी है