भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक सुबह का अंत / सत्यनारायण सोनी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
जब धूप
छत पर सोए नौजवानों का
माथा चूमती है,
बूढ़े-बडेरे
चाय सुड़क रहे होते हैं।

जब धूप
दीवारों को सोनेरी रंग से
पोत रही होती है,
नौजवान
उबासियां तोड़ते खड़े होते हैं,
बूढ़े-बडेरे
हुक्का गुडग़ुड़ा रहे होते हैं।

जब धूप
आँगन में पसर जाती है,
नौजवान
चाय के साथ
खून सने अखबारों में
बेकसूरों के
बेमौत मारे जाने की
खबरें पढ़ते हैं,
और बूढ़े-बडेरे
सूने आसमान पर नजरें गड़ाए
भगवान को कोस रहे होते हैं
और इस तरह
एक सुबह का अंत हो जाता है।

1995