भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक सुबह की भरी ताज़गी अब भी है / विनय मिश्र
Kavita Kosh से
एक सुबह की भरी ताज़गी अब भी है ।
इस उजास में एक नमी-सी अब भी है ।
ये दुनिया आज़ाद हुई कैसे कह दूँ,
ये दुनिया तो डर की मारी अब भी है ।
पेड़ बहुत हैं लेकिन सायेदार नहीं,
धूप सफ़र में थी जो तीखी अब भी है ।
उजड़ गया है मंज़र ख़ुशियों का लेकिन,
इक चाहत यादों में बैठी अब भी है ।
कान लगाकर इनसे आती चीख़ सुनो,
इन गीतों में घायल कोई अब भी है ।
हर पल दुविधाओं में रहती है लेकिन,
विश्वासों से भरी ज़िंदगी अब भी है ।