Last modified on 25 फ़रवरी 2011, at 20:42

एक सुबह की भरी ताज़गी अब भी है / विनय मिश्र

एक सुबह की भरी ताज़गी अब भी है ।
इस उजास में एक नमी-सी अब भी है ।

ये दुनिया आज़ाद हुई कैसे कह दूँ,
ये दुनिया तो डर की मारी अब भी है ।

पेड़ बहुत हैं लेकिन सायेदार नहीं,
धूप सफ़र में थी जो तीखी अब भी है ।

उजड़ गया है मंज़र ख़ुशियों का लेकिन,
इक चाहत यादों में बैठी अब भी है ।

कान लगाकर इनसे आती चीख़ सुनो,
इन गीतों में घायल कोई अब भी है ।

हर पल दुविधाओं में रहती है लेकिन,
विश्वासों से भरी ज़िंदगी अब भी है ।