एक सेतु / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
पूर्व और पश्चिम की
भावना और बुद्धि की
शताब्दियों गहरी और चौड़ी खाई पर
एक सेतु बना-
परिष्कृत चेतना का
सुगठित मोहक तन का
प्राणों की ऊर्जा का
सह-अस्तित्व में अडिग विश्वास का
वसुधैव कुटुम्बकम् का साक्षात् प्रतिरूप।
बीसवीं शताब्दी उसे याद करती है:
हारे थके दिगन्तों को ताजे गुलाबों से भर दिया,
अजनबी एकान्तों
और भयावह प्रान्तों को
लहलहाती फसलों में बदलने का यत्न किया,
भीड़ के संशयों को
संकल्पों की नदी में मुर्दा सा तिरा दिया,
छोटी मोटी सीमाओं की-
फेंका गली में कूड़े की तरह,
शिखरों से
नये क्षितिज उतारे,
भरती रहीं आलोक की धारायें,
काव्य के पंखों पर चढ़कर
महाकवि-सा मँडराया,
दग्धदाहित, नवल सृष्टि के लिए
महासूर्य-सा
बनाता रहा विराट आकृतियाँ
उच्चालोड़ित महासागर में,
स्वर्गोन्मुख ध्वनियाँ
उठती रहीं
मुखमण्डल से।