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एक सैनिक दोस्त के लिए विदागीत / पराग पावन

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असल दुश्मन सरहद के पार नहीं संसद में होते हैं
सर्वाधिक ख़तरनाक गोली बन्दूक से नहीं
दिमाग से दागी जाती है
तुम्हें तोप के मुँह पर दुश्मन नहीं तुम्हारे अफ़सर के आदेश बाँधेंगे
पर लौटकर आना, साथी !

उम्र और नौकरी का ग़ुलाम बनने के बाद भी
ठाकुरों के अहाते से करौन्दा चुराना बाक़ी रहता है
तालाब में चुआ टिकोरा खोजना बाक़ी रहता है
भरी दोपहर में बाक़ी रहता है नहर छोपकर मछली मारना
लौटकर आना, साथी !

हमारे तुम्हारे बाद भी गाए जाएँगे फगुआ और बिरहा
जाँतों के उखड़ने के बाद भी याद रह जाएँगे जँतसार
किसी का खानदानी बरम चढ़ाया जाएगा किसी पर
और औरतें समवेत गा उठेंगी पचरा
लाचारी तो हमारी बस्ती का कुलगीत है
उम्र और नौकरी का गुलाम बनने के बाद भी
नटुआ, लवनी और धोबियवा गाना बाक़ी रहता है
बाक़ी रह जाता है नाल, खँझड़ी और करताल बजाना
लौटकर आना, साथी !

वे, संसद वाले चाहते हैं कि तुम ना जानो कि
राष्ट्रवाद के बारे में टैगोर ने क्या कहा था
क्या कहा था ओरहान पामुक ने और वर्जीनिया वुल्फ़ ने
उस तुर्की पत्रकार रंक डिंक की हत्या देशप्रेमियों ने क्यों की थी
संसद वाले चाहते हैं कि तुम ना जानो

मैं जानता हूँ, चित्रकार बनने की तुम्हारी ख़्वाहिश
उसी श्यामपट्ट की कालिख में डूबकर आत्महत्या कर चुकी है
जिस पर अध्यापक के आने से पहले तुम बना देते थे पुरुष-यौनांग
फुटबॉल-खिलाड़ी बनने की तुम्हारी तमन्ना
उसी परती खेत में दफ़्न हो चुकी है
जिसे ज़मीन माफ़िया पिछले पाँच बरस से जोत रहा है

... ख़्वाहिशों की भी अपनी गतियाँ होती हैं
कुछ ख़्वाहिशों के क़दमों में कोलम्बस की क़िस्मत छुपी थी
वे भटककर भी सोने के घाट पहुँची थीं
कुछ ख्वाहिशों के क़दमों में
एकलव्य के धनुष की दर्दनाक तन्हाई थी
जिसे शक्ति रहते हुए भी बंजर ही मरना पड़ा था

इस बरस भी करेमुआ और कोकाबेला के फूल खिलेंगे
इस बरस भी सरसों का साग और नया भात महकेगा
इस बरस भी मई-जून की लू में छप्पर उठाए जाएँगे
लौटकर आना, साथी !

इस बरस भी बच्चे खेलेंगे चिरैया-पण्डोल
इस बरस भी भीगते हुए रोपे जाएँगे धान
इस बरस भी ब्याहे जाएँगे हमसे जेठ भाई
और ब्याहताओं से मुँहदेखाई की रस्म पूरा करने
लौटकर आना, साथी !

मेरी सहपाठिन, वह राजपूत लड़की
नहीं जानती मनुष्य के बनने के विज्ञान को
नहीं जानना चाहती
सामाजिक प्रशिक्षण से जाति और वर्ग और जेण्डर के सम्बन्धों को
वह नहीं सुनना चाहती उन बयानों को
जिनमें चेतना की आज़ादी को झूठ साबित किया जा चुका था

उस लड़की को देश से बहुत प्यार है
देश की सेना से बहुत प्यार है
तिरंगे से बहुत प्यार है
उस लड़की ने देश को उन आँकड़ों से जाना
जिसे पूँजी और पार्टी का वेतन पाते पत्रकार पेश करते हैं
उस लड़की ने देश को पन्द्रह अगस्त के अर्थशून्य उत्सव में
बजते हुए उन देशभक्ति गीतों से जाना
जो देशप्रेम का पैमाना बना दिए गए
उस लड़की ने देश को समझा है प्राचीनता की गरिमा की छाया में
जो बाघों की स्याही से लिखी गई
बाघों की शौर्य-कहानी से अधिक कुछ भी नहीं है
मेरी वह सहपाठिन,
उसे मैंने देश के बाजुओं, जाँघों और तलुओं में सिसकती
एकलव्य के धनुष की तन्हाई को दिखाना चाहा था
पर उसे देश से बहुत प्यार है
और मैं अपने परिवेश में देशद्रोही माना जाता हूँ

एक ही मिट्टी के पाले हुए
एक ही दुर्गन्ध के दुलारे हुए
एक ही गाली झेलते बड़े हुए हम
आज तुम सैनिक हो
और मैं देश के लिए शर्म का विषय
कल हमारी लाशें साथ ही आएँगी इस बस्ती में
तुम्हें तुम्हारे अफ़सर का आदेश मारेगा
और मुझे देश के सच्चे सपूत मारेंगे

इस संयोग पर अम्बेडकर मार्क्स से क्या कहेंगे
मैं नहीं जानता
मैं नहीं जानता देश की लाश होती है या नहीं
पर यह इल्तज़ा करता हूँ कि लाशों का कोई देश नहीं होना चाहिए
इस बस्ती में रहे, इस देश में रहे
धरती के किसी भी हिस्से में पड़ी हुई मेरी लाश भी
तुम्हारी आहट पाकर झूमकर उठेगी
और एक गीत गुनगुनाएगी
जिसमें करेमुआ और कोकाबेला के फूल खिल रहे होंगे
जिसमें सरसों का साग और नया भात महक रहा होगा
जिसमें सावन में भीगते हुए धान रोपे जा रहे होंगे
लौटकर आना, साथी !
लौटकर आना !