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एक सोने का मगर झूठा शज़र था सामने / डी. एम. मिश्र
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एक सोने का मगर झूठा शज़र था सामने
खोखले जुमलों का अब फ़ीका असर था सामने
स्वप्ननगरी के लिए मेरी ज़मीनें छिन गयीं
छप्परों की क़ब्र पर अब इक शहर था सामने
बज़्म में वादा किया था आपने तो जाम का
पर, परोसा जब गया मीठा ज़हर था सामने
धनकुबेरों को तो हरियाली दिखे चारों तरफ़
किन्तु जब नीमर से पूछा तो सिफ़र था सामने
ज़िंदगी का लुत्फ़ भी लेना ज़रूरी है बहुत
मौत का भी डर मगर आठों पहर था सामने
इसलिए हमने महल ऊँचा उठाया ही नहीं
ज़लज़ले का दोस्तो टूटा क़हर था सामने