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एक स्त्री के अनुपस्थित होने का दर्द / विनोद विट्ठल
Kavita Kosh से
वे जो दर्जा सात से ही होने लगी थीं सयानी
समझने लगी थीं लड़कों से अलग बैठने का रहस्य
कॉलेज तक आते सपनों में आने लग गए थे राजकुमार
चिट्ठी का जवाब देने का सँकोचभरा शर्मीला साहस आ गया था
बालों, रँगों के चयन पर नहीं रहा था एकाधिकार
उन्हीं दिनों देखी थी कई चीज़ें, जगहें
शहर के गोपनीय और सुन्दर होने के तथ्य पर
पहली बार लेकिन गहरा विश्वास हुआ था
वे गँगा की पवित्रता के साथ कावेरी के वेग-सी
कई-कई धमनियों में बहतीं
हर रात वे किसी के स्वप्न में होतीं
हर दिन किसी स्वप्न की तरह उन्हें लगता
वे आज भी हैं अपने बच्चों, पति, घर, नौकरी के साथ
मुमकिन है वैसी ही हों
और यह भी
कि उन्हें भी एक स्त्री के अनुपस्थित होने का दर्द मेरी तरह सताता हो