भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक स्त्री के अनुपस्थित होने का दर्द / विनोद विट्ठल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे जो दर्जा सात से ही होने लगी थीं सयानी
समझने लगी थीं लड़कों से अलग बैठने का रहस्य
कॉलेज तक आते सपनों में आने लग गए थे राजकुमार
चिट्ठी का जवाब देने का सँकोचभरा शर्मीला साहस आ गया था
बालों, रँगों के चयन पर नहीं रहा था एकाधिकार

उन्हीं दिनों देखी थी कई चीज़ें, जगहें
शहर के गोपनीय और सुन्दर होने के तथ्य पर
पहली बार लेकिन गहरा विश्वास हुआ था

वे गँगा की पवित्रता के साथ कावेरी के वेग-सी
कई-कई धमनियों में बहतीं
हर रात वे किसी के स्वप्न में होतीं
हर दिन किसी स्वप्न की तरह उन्हें लगता

वे आज भी हैं अपने बच्चों, पति, घर, नौकरी के साथ
मुमकिन है वैसी ही हों
और यह भी
कि उन्हें भी एक स्त्री के अनुपस्थित होने का दर्द मेरी तरह सताता हो