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एक हत्यारे शहर में वसंत आता है / दिनकर कुमार

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एक हत्यारे शहर में
वसन्त आता है
तो सिर झुकाकर चलता है
कायरता से कातर नज़रों को
उठा नहीं पाता

चाय पी रहा इन्सान
अचानक दो टुकड़ों में
विभाजित हो जाता है
वसन्त उस तरफ देखता नहीं
अख़बार में दूसरे दिन
नरमुंड की तस्वीर देखता है

पहाड़ियों से गोलीबारी की आवाज़
सुनाई देती है
वसन्त चौंकता नहीं
वह लहूलुहान झरने से अपना चेहरा धोता है
और पानी का रंग
बदल जाने पर
उसके भीतर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती

सुनसान बाज़ार में कोई लाश
मक्खियों से घिरी बाट जोहती है
वसन्त लाश को लाँघकर आगे बढ़ जाता है
उसे भयानक ख़ामोशी और
बन्द दरवाज़ों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता

एक हत्यारे शहर में
वसन्त आता है
तो गुलमोहर पेड़ों पर नहीं
खिलते
बल्कि सड़कों पर खिलते हैं
और रौंद डाले जाते हैं ।