भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक हिन्दुस्तानी लड़की : अपने मन से / रणजीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुन रे मेरे मन !
इतना मत तन
पहले इधर देख
फिर करना मीन-मेख
सुन, यह है तेरा पति
इसके सिवा नहीं तेरी गति
इसको कर प्यार
अपने को मार
हिम्मत न हार
फिर कोशिश कर एक बार
आख़िर इसी से है काम
या करेगी अपने पुरखों का नाम ?

देख, अपने देश का तो ढंग ही यही है
सदा से यही रीति चलती रही है
कि पहले किसी से भी शादी करो
फिर अपने जो हिस्से आए, उसी पर मरो
तू भी मरना सीख
तुझसे मैं माँगती हूँ भीख
आख़िर इस बिचारे में कौन सी बुराई है
माँ-बाप ने देख-सुनकर ही आख़िर तू ब्याही है

फिर औरत को
किसी न किसी मर्द से तो झुकना ही पड़ता है
तब इसी से झुकने में क्या फ़र्क पड़ता है
सोच ले अब तू बस इसकी परिणीता है
यह राम है तेरा, तू इसकी सीता है

पर यह राम हो, न हो, तुझे सीता रहना है
इसका ही होकर रहना है, अगर जीता रहना है
भले घर की लड़कियों का यही है ढंग
जैसे काली कामरी चढ़े न दूजो रंग ।