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एक ही मुश्दा सुभो लाती है / जॉन एलिया
Kavita Kosh से
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एक ही मुश्दा सुभो लाती है
ज़हन में धूप फैल जाती है
सोचता हूँ के तेरी याद आखिर
अब किसे रात भर जगाती है
फर्श पर कागज़ो से फिरते है
मेज़ पर गर्द जमती जाती है
मैं भी इज़न-ए-नवागरी चाहूँ
बेदिली भी तो नब्ज़ हिलाती है
आप अपने से हम सुखन रहना
हमनशी सांस फूल जाती है
आज एक बात तो बताओ मुझे
ज़िन्दगी ख्वाब क्यो दिखाती है
क्या सितम है कि अब तेरी सूरत
गौर करने पर याद आती है
कौन इस घर की देख भाल करे
रोज़ एक चीज़ टूट जाती है