एक ही शहर में / गौरव गुप्ता
बहुत बड़ी नहीं थी दिल्ली
यहाँ एक छोर से दूसरी छोर को लांघ सकने के लिए पर्याप्त सवारियाँ भी थीं
एक दूसरे से टकरा जाने की पर्याप्त सम्भावनाएँ भी।
मेरी आँखें ढूंढ़ती रहती थी उसे
जैसे ढूँढता है कोई बच्चा
खोया हुआ सिक्का
तड़पता हुआ, बेचैन सा
डबडबायी आँखों से।
कई बार बेवजह भटका हूँ मैं ताकि
मिल जाए कहीं वो
डीटीसी बस की आखिरी सीट पर बैठी
या मेट्रो की लेडीज कम्पार्टमेंट में चढ़ते हुए
या किसी शांत दुपहर में अकेली
इंडियन कॉफी हाउस की छत पर
या दिल्ली की सड़कों पर गुलमोहर चुनते हुए
और, एक रोज मिलना हुआ
दो विपरीत दिशाओं में आती जाती मेट्रो के गेट पर खड़े थे हम दोनों।
नहीं, वह उदास नहीं थी
शाम ऑफिस से लौट रही थी शायद,
मेट्रो की भीड़ में खड़ी अपनी जगह बनाते हुए
किसी लेडीज कम्पार्टमेंट में नहीं,
पुरुषों की भीड़ के बीच
हाथ में काला बैग, पानी की बोतल से गला तर कर रही थी।
वह मुझे देखी
उसकी पुतलियों में हलचल हुई
पर उसके होंठ चुप रहे
उसके बाल खुले और आज़ाद थे,
गर्दन पर पसीने से चिपके हुए
उसकी आँखें थकी हुई थीं
और पहले से ज्यादा सुंदर।
दरवाज़ा बंद होते ही
मेट्रो ने रफ्तार पकड़ लिया था...
एक दूसरे को एकटक देखते हुए
हमलोग एक दूसरे से दूर जा रहे थे।
उस रोज
दिल्ली की सड़कों पर चलते हुए महसूस हुआ,
दिल्ली में खो जाने के लिए पर्याप्त जगहें भी हैं।
किसी भीड़ में उसका मेरे पास से बेखबर गुजर जाने के लिए पर्याप्त भीड़,
पल भर में किसी के आंखों के सामने से ओझल हो जाने लिए पर्याप्त रफ्तार,
उसका नाम पुकारूँ और उसके न सुन सकने के लिए पर्याप्त शोर।
एक ही शहर में रहते हुए
हम दो अलग-अलग शहर के लोग थे।