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एक / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
Kavita Kosh से
सूरज को रोने मत देना, हँसने दे नहीं सितारों को
चन्दा को जिन्दा रहने दे, मामा के अधिकारों को
सीरत ठहरी रहे यही बस! सूरत तो बदलती रहती है
पत्थर हा वहीं युग-युग से पड़ा, मूरत तो बदलती रहती है
सागर की गहराई को कोई थाहे न, सागर रोता है
चुप रह कोई मत बोल, ऐसा है ! ऐसा ही होता है
रहने दे अपनी जगह सबों को शिद्दत से
तुमने रक्खा नहीं ये रहने आए हैं, मुद्दत से
यह प्रकृति की नाव, प्रकृति को खेने दे
तुम चाह न ऐसा हो जाए, जैसा होता है होने दे
तुम आदमी हो, आदमी बन के रहना सीख
जो कुछ भी देखना है, अपने आप में देख