एड़ी को अँगूठे से सटाते / मनीष यादव
एड़ी को अँगूठे से सटाते
टोकरी में छोटे-छोटे कदमों से आगे बढ़ते हुए
हुआ है उसका प्रवेश.
गाढ़े, कत्थयी लाल रंग में
हाथों को डुबोकर, देवता घर के बाहर
दिए हैं उसने अपने हथेलियों के छाप!
जैसा सहेलियों ने बताया था
कोहबर के गीतों की ध्वनि सुनाई देने लगी है
दीये को लेकर घर में चारों तरफ
सांझ दिखाती सास
अब अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होने वाली है
रात्रि के आहट से भय खाती हुई वो स्त्री
मिथ्या के कौन से कोर को पकड़े कुछ कहे
वह झुंझला नहीं पा रही
वह दौड़ नहीं पा रही
वह अपना माथा भी नहीं पीट सकती
अपने भाग्य पर रोने का अवसर नहीं उसके पास
जैसे बर्फ की नई चादर चढ़ गई हो देह पर
उसी तरह सुन्न हो गयी है वो!
अगले दिन की मुंह दिखाई के रस्म के बाद
उसे थोपा गया एक नया जीवन दिखने लगा है.
वह सब कुछ नहीं निहारती
एक ही प्रश्न किए जा रही है ख़ुद से –
नए अपनों के बीच
उससे घुल मिल जाने का प्रयास करते लोगों के बीच
वह अपने प्रिय स्वप्नों को भूल जाने का कौन सा मुहूर्त तय करे?
जो स्त्रियाँ
अपने मन के विरुद्ध हो रहे निर्णयों का
विरोध नहीं कर पाती हैं;
या तो वह टूट कर एक नए साँचे में ढाल लेती हैं खुद को
या कर देती हैं विद्रोह किसी दिन “कुलक्षणी” की उपाधी पाकर।