एम० एस० आज़ाद के लिए / कांतिमोहन 'सोज़'
(पुरानी ग़ज़ल नए रूप में एम० एस० आज़ाद के लिए)
सारी पस्ती संगदस्ती<ref>काहिली, आलस्य</ref> क़िस्मते-क़ातिल में है।
अब तो यारो ज़ोर सारा बाज़ुए-बिस्मिल में है॥
आह वो दस्ते-दुआ पर बेसबब चाबुकज़नी
अब सुना है अपना चरचा यार की महफ़िल में है
सोगवारी में वो उनकी अश्कबारी ज़ार-ज़ार
हममें जो ख़ूबी न थी शायद हमारी गिल<ref>मट्टी</ref> में है।
कमतरी ने ज़ोर मारा ज़र्फ़ ने क़ाइल किया
हम किसी को क्या बताते क्या हमारे दिल में है।
राज़े-उल्फ़त आम है जश्ने-चराग़ां आम है
अब तकल्लुफ़ है तो हर्ज़ागोइए-बातिल<ref>झूठ की बकवास</ref> में है।
हज़रते-क़ारूँ<ref>एक बादशाह जिसके पास दुनिया का सबसे बड़ा ख़ज़ाना था</ref> समझते थे छुपा लेंगे जिसे
गरदिशे-दौराँ से वो शै क़ासा-ए-साइल<ref>भिखारी का कटोरा</ref> में है
सोज़ सारी महफ़िलें सूनी पड़ी हैं इन दिनों
सारी मस्ती पे्शदस्ती आजकल मक़्तल में है॥
15-4-1985--5-11-2016