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ऐसा अपना साथ कि जैसे एक दिया दो बाती / रंजना वर्मा

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मावस की यह रात अँधेरी पंथ न सूझे साथी।
ऐसा अपना साथ कि जैसे एक दिया दो बाती॥

 नभ में तारे सिसक रहे हैं
रजनी पति है खोया,
धरती का कण आज सांत्वना
ओस अश्रु में रोया।

सोच रही भू आज किसे रत्नों की सौंपूं थाती।
ऐसा अपना साथ कि जैसे एक दिया दो बाती॥

कठिन समस्या अंधकार यह
निगल न जाये निधि को,
इसीलिए वसुधा क्या वंचित
करने आयी विधि को?

वसु की धारा दीपशिखा बन फूली नहीं समाती।
ऐसा अपना साथ कि जैसे एक दिया दो बाती॥

नीलम वातायन से नभ ने
काली चादर ओढ़ी,
अमिट लेख विधना का पढ़ने
भागी नींद निगोड़ी।

दीपों की यह झिलमिल भी है मन को नहीं सुहाती।
ऐसा अपना साथ कि जैसे एक दिया दो बाती॥

दुख सुख आँखमिचौली खेलें
मन यमुना के तीरे,
साथ रहो तुम कट जायेगी
मावस धीरे धीरे।

फिर से हमें दिखेंगी किरणें अपने पास बुलाती।
ऐसा अपना साथ कि जैसे एक दिया दो बाती॥

एक दीप प्रिय अमर प्रेम का
चौराहे पर बालो,
अँजुरी भर फिर किरण नेह की
जग की ओर उछालो।

शायद कोई किरण सँभाले बुझती जाती थाती।
ऐसा अपना साथ कि जैसे एक दिया दो बाती॥