भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऐसा क्या मर गया है / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
रस्ते गुमसुम पड़े हैं
कि इन्हें यहाँ
तकने वाला कोई नहीं है
नींदें आंखों की तलाश में
दर-बदर भटक रही हैं
मंज़िलों की नज़रें
अपने तरफ़ बढ़ते क़दमों
की राह तक रही हैं
लिबास जिस्म
और जिस्म
लिबास की जुस्तुजू में
नौहा ज़न हैं
हवा के झोंके
चिराग़ों की लवें
ढूँढते-ढूंढ़ते
कई बार बिखरे यहाँ
आख़िर इस आबादी में
ऐसा क्या मर गया है॥