ऐसा क्यूँ है, वैसा क्यूँ है / रविकांत अनमोल
ऐसा क्यूँ है, वैसा क्यूँ है
इस उलझन में पड़ता क्यूँ है
सोच रहे हैं सारे आक़िल<ref>समझदार लोग</ref>
जो जैसा है वैसा क्यूँ है
क्यूँ है धरती सिमटी-सिमटी
अम्बर फैला-फैला क्यूँ है
इस दुनिया में आख़िर यारो
सब कुछ उल्टा-पुल्टा क्यूँ है
वो आए तो सबने पूछा
आंगन महका-महका क्यूँ है
इस बस्ती का हर बाशिन्दा
आख़िर बहका-बहका क्यूँ है
झूटे लोगों की दुनिया में
सच्ची बातें करता क्यूँ है
रोने वालों को हैरानी
हँसने वाला हँसता क्यूँ है
'सुक़रातों' को हर इक जुग में
विष का प्याला मिलता क्यूँ है
भीड़ भरी दुनिया में इन्साँ
इतना तन्हा-तन्हा क्यूँ है
सब कुछ हो जाता है धन से
यह मत पूछो होता क्यूँ है
धो देता है मैल जो सारे
वो पानी ख़ुद मैला क्यूँ है
क्यूँ है ऐ 'अनमोल' उदासी
चिहरा उतरा-उतरा क्यूँ है