भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसा बना दिया तुझे कुदरत ख़ुदा की है / 'बेख़ुद' देहलवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसा बना दिया तुझे कुदरत ख़ुदा की है
किस हुस्न का है हुस्न अदा किस अदा की है

चश्‍म-ए-सियाह-ए-यार से साज़िश हया की है
लैला के साथ में ये सहेली बला की है

तस्वीर क्यूँ दिखाएँ तुम्हें नाम क्यूँ बताएँ
लाए हैं हम कहीं से किसी बे-वफ़ा की है

अंदाज़ मुझ से और हैं दुश्‍मन से और ढंग
पहचान मुझ को अपनी पराई क़ज़ा की है

मग़रूर क्यूँ हैं आप जवानी पर इस क़दर
ये मेरे नाम की है ये मेरी दुआ की है

दुश्‍मन के घर से चल के दिखा दो जुदा जुदा
ये बाँकपन की चाल ये नाज़ ओ अदा की है

रह रह के ले रही है मेरे दिल में चुटकियाँ
फिसली हुई गिरह तेरे बंद-ए-क़बा की है

गर्दन मुड़ी निगाह लड़ी बात कुछ न की
शोख़ी तो ख़ैर आप की तम्कीं बला की है

होती है रोज़ बादा-कशों की दुआ कबूल
ए मुहतसिब ये शान-ए-करीमी ख़ुदा की है

जितने गिले थे उन के वो सब दिल से धुल गए
झेंपी हुई निगाह तलाफ़ी जफ़ा की है

छुपता है खून भी कहीं मुट्ठी तो खोलिए
रंगत यही हिना की यही बू हिना की है

कह दो कि बे-वजू न छूए उस को मोहतसिब
बोतल में बंद रूह किसी पारसा की है

मैं इम्तिहान दे के उन्हें क्यूँ न मर गया
अब ग़ैर से भी उन को तमन्ना वफ़ा की है

देखो तो जा के हज़रत-ए-बेख़ुद न हूँ कहीं
दावत शराब-ख़ाने में इक पारसा की है