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ऐसा समय / विष्णु नागर
Kavita Kosh से
यह ऐसा समय है
जिसमें जितनी देर में चिडिया उड़ती है
और दाना चुगकर लौटती है
उतनी देर में
उसका घोंसला उजड़ जाता है
जब तक वह सोचती है कि अब रात में कहां
किस दिशा में जाए
या जाने से पहले क्या अपनी बर्बादी पर दो मिनट रो ले
या क्या रोती जाए और उड़ती जाए
तब तक अंधेरे में
उस पर कोई निशाना साध देता है
वह मरती नहीं
घायल होती है
मगर संभाल नहीं पाती
अपने आपको
गिरते हुए सोचती है कि चलो
धरती पर तो गिरेंगे, मरेंगे तो वहीं मरेंगे
क्योंकि उसे मैं अच्छी तरह जानती हूं
लेकिन तब तक पता चलता है
कि धरती तो किसी की हो चुकी है
वहां चिडिया को मरने की और आदमी को जीने की इजाजत नहीं है