ऐसी एक ठौर देखी है !/ हरीश भादानी
ऐसी एक ठौर देखी है !
    सड़क नहीं पगडण्डी कोई
    नहीं कहीं से बँटी-बँटी सी
    पाँव-पाँव को चलन बताए
    दूरी से अनुराग सिखाए
चले तो खुद ही पथ बन जाए
लगे बिछी दाके की मलमल
देखन लागो, थके न आँखें
हेमरंग डूँगर ही डूँगर
    लगो पूछने अपने से ही
    यह रचना किसने देखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !
    यहाँ सुबह से पहले उठती
    रमझोळों वाली यह ड्योढ़ी
    धूपाली गायों के संग-संग
    रंभाती दूधाली गायें
यह अपने पर घर रूपाये
खुद सिणगारी ऐसे संवरे
जैसे लडा-लडा बेटी को
मायड़ केश संवारे गूँथे
    भर-भर भरती जाय कुलांचें
    यहीं एक हिरनी देखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !
    थप-लिपती इसकी सौरम को
    हवा उड़ाये ऐसे फिरती
    जैसे हाथ छुड़ा कर भागे
    हँसती हुई खिलंदड़ छोरी
आँक नहीं है, बाँक नहीं है
इसके मन में फाँक नहीं है
सुनो तो लागे सबको ऐसी
बेहदवाली बोल रही है
    बाथों में भूगोल सरीखी
    जैसे विषुवत ही रेखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !
 
	
	

