भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसी ख़ुशियों की जब बारात सजी / लीना मल्होत्रा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उस दिन ख़ुशी के मारे
चाँद भी रास्ता भटक गया
और
चाँदनी इठलाते हुए उतर आई
उस आँगन में
जहाँ बरगद ने सौ बरस तपस्या की थी I
कोई आने वाला था.... I

बरगद ख़ुश था उसके हर पत्ते ने दुआ में हाथ उठाए
ख़ूब आशीर्वाद बरसाए
घर के सभी चमकदार बर्तन ख़ुश थे
कोई आने वाला था....I
फिर से मँजेंगे ,
कमरे ख़ुश थे - फिर सँवरेंगे ।
मुंडेरे ख़ुश थीं - ख़ूब सजेंगी
पानी ख़ुश था- कोई पीएगा, नहाएगा
हवा ख़ुश थी- कभी ज़ोर से तो कभी धीरे से बहेगी
दिन, मिनट, घंटे ख़ुश थे - खालीपन ख़त्म हुआ
डिब्बो में रखी दालें, आटा और चावल ख़ुश थे-
नए पकवान पकेंगे
चींटियाँ ख़ुश थीं- ख़ूब खाना बिखरेगा

ऐसी ख़ुशियों की जब बारात सजी
एक सफ़ेद रुई का गोला मेरी गोद में आ गिरा
उस रुई के गोले की दो काली-काली आँखें खुली
और उन्होंने मुझसे पूछा-
"माँ, तुम ख़ुश हो ।"

और
मैंने जाना कि
ख़ुशी क्या होती है ।

मैंने अभी उसे ठीक से प्यार भी नहीं किया
दुलार भी नहीं किया
नज़र का टीका भी नहीं किया
कि
वह सफ़ेद ख़रगोश की तरह
कुलाँचे भरती, भाग गई
छोटा सा बस्ता उठाए, स्कूल ।

उसके लौटने तक एक उम्र बीत गयी
और मैंने जाना
इंतज़ार क्या होता है ।