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ऐसी सहर कि जिसमें कोई जल्वागर न हो / नज़ीर बनारसी
Kavita Kosh से
ऐसी सहर <ref>प्रभात</ref> कि जिसमें कोई जल्वागर <ref>आलोकित</ref> न हो
वो रात का कफन हो हमारी सहर न हो
क्यूँ एक दिल की दूसरे दिल को खबर न हो
वो दर्दे-इश्क क्या जो इधर हो उधर न हो
हर शै <ref>वस्तु</ref> हसीन होती है हुस्ने निगाह <ref>दृष्टि-सौन्दर्य</ref> से
कुछ भी न हो हसी जो हुस्ने नजर <ref>दृष्टि-सौन्दर्य</ref> न हो
आखिर ये क्या सितम <ref>गजब</ref> है मेरे राजदार <ref>भेद जाने वाला</ref> दिल
मेरे ही घर की बात मुझी को खबर न हो
इन्सानियत है जल्वानुमा <ref>प्रकाशमान</ref> जिस तरफ ’नजीर’
मैं तो उधर हूँ चाहे जमाना उधर न हो
शब्दार्थ
<references/>