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ऐसे भी कुछ ग़म होते हैं / शाहिद मीर
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ऐसे भी कुछ ग़म होते हैं
जो उम्मीद से कम होते हैं
आगे आगे चलता है रस्ता
पीछे पीछे हम होते हैं
राग का वक़्त निकल जाता है
जब तक सुर क़ाएम होते हैं
बाहर की ख़ुश्की पे न जाओ
पत्थर अंदर नम होते हैं
मिलने कोई नहीं आता जब
अपने आप में हम होते हैं
चेहरों की तो भीड़ है लेकिन
सही सलामत कम होते हैं
नज़्में ग़ज़लें ख़त अफ़साने
उस के नाम रक़म होते हैं
दिल के षेल्फ़ में ‘शाहिद’ कितनी
यादों के अल्बम होते हैं