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ऐसे रखती है हमें तेरी मोहब्बत ज़िंदा / शहबाज़ ख्वाज़ा
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ऐसे रखती है हमें तेरी मोहब्बत ज़िंदा
जिस तरह जिस्म को साँसों की हरारत ज़िंदा
शौक़ की राह में इस ऐसा भी पल आता है
जिस में हो जाती है सदियों की रियाज़त ज़िंदा
रोज़ इक ख़ौफ़ की आवाज पे हम उठते हैं
रोज़ होती है दिल आ जाँ में क़यामत ज़िंदा
अब भी अंजान ज़मीनों की कशिश खींचती है
अब भी शायद हे लहूं में कहीं हिजरत ज़िंदा
ताअज-ए-जब्र बहुत आम हुई जाती थी
एक इंकार ने की रस्म-ए-बग़ावत ज़िंदा
हम तो मर कर भी ना बातिल को सलामी देंगे
कैसे मुमकिन है कि कर लें तिरी वैअत ज़िंदा
हम में बुक़रात तो कोई नहीं फिर भी ‘शहबाज़’
ज़हर पी लेते हैं रखते हैं रिवायत ज़िंदा