भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसे ही नहीं आग़ लगाते रहे हैं लोग / आनंद कुमार द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसे ही नहीं आग लगाते रहे हैं लोग
जलने का सलीका भी सिखाते रहे हैं लोग

थोड़ी बहुत तो मेरी फिकर भी रही उन्हें
अपने तमाम फ़र्ज़ निभाते रहे हैं लोग

ये करना, ये न करना, नेकी बदी कि राह
हर पाठ तसल्ली से पढ़ाते रहे हैं लोग

क्या कीजिये जो कोई दुआ काम न करे
मेरे लिए तो हाथ उठाते रहे हैं लोग

मैं चल न पडूँ उनकी तरफ, डर था उन्हें भी
क़दमों के निशाँ तक को, मिटाते रहे हैं लोग

जब चल पड़े फ़ना की राह, फिर क्या सोंचना
किस किस तरह से मुझको सताते रहे हैं लोग

‘आनंद’ कहाँ खो गया जिससे भी पूछिए
दिल्ली कि तरफ हाथ उठाते रहे हैं लोग