भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऐसे ही वसन्त में चला जाऊँगा / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
ऐसे ही वसन्त में चला जाऊँगा,
इन्हीं फटेहाल कपड़ों में जूतों की कीचड़ समेत ।
परागकणों की धूल में नथुनों की सुरसुराहट रोकता
ढू़ँढ़ने लगूँगा कोई रंग
वहाँ खूब पीला नहीं दिखेगा तो
निराश जूते पर
जमी धूल पर
पीला लिखने के लिये झुकूँगा
रूक जाऊँगा ।
किसी उदास वृक्ष की तरह ऐसे ही झुका रहूँगा
किसी दूसरे मौसम में सर उठाऊँगा
कोई पत्ता उठाऊँगा आगे की लू भरी दोपहरों से
धूप के दरवाज़े में भी ऐसे ही घुस जाऊँगा
कुछ भी नहीं बदलूँगा कुछ बदलेगी
तो कन्धों पर गिरती बारिश ही बदलेगी
बारिश से बाहर कभी नहीं आऊँगा ।