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ऐ अब्र-ए-इल्तिफ़ात तिरा ए‘तिबार फिर / अकरम नक़्क़ाश
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ऐ अब्र-ए-इल्तिफ़ात तिरा ए‘तिबार फिर
आँखों में फिर वो प्यास वही इंतिज़ार फिर
रख्खूँ कहाँ पे पाँव बढ़ाऊँ किधर क़दम
रख़्श-ए-ख़याल आज है बे-इख़्तियार फिर
दस्त-ए-जुनूँ-ओ-पंजा-ए-वहशत चिहार-सम्त
बे-बर्ग-ओ-बार होने लगी है बहार फिर
पस्पाइयों ने गाड़ दिए दाँत पुश्त पर
यूँ दामन-ए-ग़ुरूर हुआ तार तार फिर
निश्तर तिरी ज़बाँ ही नहीं ख़ामशी भी है
कुछ रह-गुज़ार-ए-रब्त हुई ख़ार-ज़ार फिर
मुझ में कोई सवाल तिरे मा-सिवा नहीं
मुझ में यही सवाल हुआ एक बार फिर