भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐ जज़्ब-ए-दिल गर मैं चाहूँ / बहज़ाद लखनवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐ जज़्ब-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए
मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए
 
ऐ दिल की ख़लिश चल यूँ ही सही चलता तो हूँ उनकी महफ़िल में
उस वक़्त मुझको चौंका देना जब रंग पे महफ़िल आ जाए

ऐ रहबर-ए-कामिल चलने को तैयार तो हूँ पर याद रहे
उस वक़्त मुझे भटका देना जब सामने मंज़िल आ जाए

हाँ याद मुझे तुम कर लेना, आवाज़ मुझे तुम दे लेना
इस राहे-मोहब्बत में कोई दरपेश जो मुश्किल आ जाए

अब क्यूँ ढूँढ़ू वह चश्म-ए-करम, होने दो सितम बालाए सितम
मैं चाहता हूँ ऐ जज़्ब-ए-ग़म, मुश्किल पस-ए-मुश्किल आ जाए

इस जज़्ब-ए-ग़म के बारे में एक मशविरा तुमसे लेना है
उस वक़्त मुझे क्या लाज़िम है जब तुम पे मेरा दिल आ जाए