भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐ जज्बा-ए-निहां और कोई है कि वही है / फ़िराक़ गोरखपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है

कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है

वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है

ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है

ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है

है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है

मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है

जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.