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ऐ जज्बा-ए-निहां और कोई है कि वही है / फ़िराक़ गोरखपुरी
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ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है
कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं
और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है
वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो
ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है
ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार
गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है
ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको
जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है
है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है
मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है
लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है
जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.