भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐ मेरे सर-सब्ज़ ख़ुदा / सारा शगुफ़्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बैन करने वालों ने
मुझे अधखुले हाथ से क़ुबुल किया
इंसान के दो जनम हैं
फिर शाम का मक़्सद क्या है
मैं अपनी निगरानी में रही और कम होती चली गई
कुत्तों ने जब चाँद देखा
अपनी पोशाक भूल गए
मैं साबित क़दम ही टूटी थी
अब तेरे बोझ से धँस रही हूँ
तन्हाई मुझे शिकार कर रही है
ऐ मेरे सरसब्ज़ ख़ुदा
ख़िज़ाँ के मौसम में भी मैं ने तुझे याद किया
क़ातिल की सज़ा मक़्तूल नहीं
ग़ैब की जंगली-बेल को घर तक कैसे लाऊँ
फिर आँखों के टाट पे मैं ने लिक्खा
मैं आँखों से मरती
तू क़दमों से ज़िंदा हो जाती