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ऐ शम्मा, ज्यों एक-एक रात तुझ पर / तारा सिंह
Kavita Kosh से
ऐ शम्मा, ज्यों एक-एक रात तुझ पर भारी है
त्यों हमने अपनी उम्र सारी गुजारी है
बदगुमानों से कर इश्क का दावा
हमने बज्म में हर बार शर्त हारी है
मय और माशूक को कब, किसने नकारा है
तुन्द—खूँ के मिजाज को इसी ने संवारी है
सदमें सहने की और ताकत नहीं हममें
उम्मीद—वस्ल में, तबीयत फ़ुरकत से हारी है
अब किसी सूरत से हमको करार नहीं मिलता
हमारे तपिशे दिल की यही लाचारी है
बहार गुलिस्तां से विदा लेने लगा, लगता
नजदीक आ रही पतझड़ की सवारी है