ऐ समय! शायरों को तू दे रोशनी / उर्मिल सत्यभूषण
ऐ समय! शायरों को तू दे रोशनी
रोशनी फिर ज़माने को दे शायरी
आंसुओं की झड़ी मोतियों की लड़ी
मेरे दिल में निरंतर झरे निर्झरी
यूं तो हाथों में मेरे है गंगाजली
इसमें छलके है हाला सी जिं़दादिली
रात जिनके लिये आंख को किरकिरी
उन पे बरसे मधुर गीत की चांदनी
जिनके होठों पे आई कभी ना हंसी
बन तबस्सुम खिले गीत की पांखुड़ी
लेखनी अक्षरों के जलाये दिये
औ बहा दे उजालों की उजली नदी
ज़ख्म के वास्ते शब्द मरहम बनें
राहतें दें वे मिट जाये पीड़ा घनी
पत्थरों का कलेजा पिघलने लगे
मेरे नग़मों की ऐसी बजे बांसुरी
सोच लिखती रहे आदमी की व्यथा
आदमीयत को करती रहे बंदगी
झूठ, अन्याय, जुल्मो-सितम, के विरुद्ध
बन के हथियार चलती रहे लेखनी
ओ रचयिता तू आज़ाद रखना सृजन
तेरी रचना कभी ना बने बंदिनी
तू अकेली कहाँ है अकेली कहाँ
तेरी कविता ही तेरी है चिर संगिनी
हार कर छोड़ देना न उर्मिल क़लम
यह तेरी जिं़दगी है, तेरी बंदगी